Vedic Adhyatmik Nyas 2014

2014

वैदिक आध्यात्मिक न्यास 2016 ।। ओ3म् ।। स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक की प्रारम्भ से इच्छा रही है कि समान विचार वाले आध्यात्मिक लोग अपनी-अपनी उन्नति के साथ-साथ परस्पर सहयोग-संगठन से चलते हुये एक दूसरे की वृद्धि करें, शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान का व्यापक प्रचार करें व समाज-संसार का आधिकाधिक कल्याण करें। इस दिशा में कार्य करने के लिये एक न्यास का गठन किया गया, जिसका मुख्य कार्यालय ऋषि उद्यान, अजमेर व उप कर्यालय वानप्रस्थ साधक आश्रम, रोजड़ में रखा गया।

ऐसे व्यक्ति जो स्वामी स्त्यपति जी या उनकी परम्परा से कम से कम दो वैदिक दर्शनों को पढे़ हों या इनकी सन्निधि में दो वर्षों तक शिष्य के रूप में रहे हों, वे न्यास के सदस्य हो सकते हैं। न्यास को आर्थिक-शारीरिक सहयोग देने वाले इसके सहयोगी सदस्य हो सकते हैं।

वैदिक आध्यात्मिक न्यास के तत्त्वावधान में आयोजित वार्षिक स्नेह सम्मेलन एवं संगोष्ठी (द्वितीय) 7 से 9 फरवरी 2014 तक, वानप्रस्थ साधक आश्रम, रोजड़ में स्वामी सत्यपति जी की प्रेरणा एवं आशीर्वचनों के साथ हर्र्षाेल्लासपूर्वक सम्पन्न हुई।

संगोष्ठी की पूर्व सन्ध्या दिनांक 6 फरवरी को 8.00 से 8.30 बजे तक भजन एवं सूचना सत्र का आयोजन हुआ, जिसका संचालन ब्र. अरुण कुमार जी ने किया। इस सत्र में वानप्रस्थ साधक आश्रम, रोजड़ के ब्र. उत्तम जी व ब्र. रामदयाल जी, केरल से पधारे आचार्य आनन्द जी (मलयालम में) एवं हरियाणा के आचार्य सत्यप्रकाश जी आदि ने ईश-भक्ति के सुमधुर भजनों की सरल प्रस्तुति कर सबको भाव-विभोर कर दिया। तत्पश्चात व्यवस्था, दिनचर्या एवं अनुशासन सम्बन्धी सूचनाओं के साथ इस सत्र की समाप्ति हुई।

दिनांक 7 फरवरी को आचार्य ज्ञानेश्वर जी की अध्यक्षता में प्रातः 9.30 से 11.30 बजे तक उद्धाटन सत्र का आयोजन हुआ, जिसमें सर्वप्रथम न्यास के सचिव आचार्य सत्यजित् जी ने उपस्थित सभी सदस्यों का सस्नेह स्वागत किया। इसके पश्चात ट्रस्ट के संरक्षक एवं दिशा-निर्देशक पूज्य स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक के प्रेरक आशीर्वचनों से संगोष्ठी का विधिवत् उद्टन हुआ। (सर्वप्रथम ईश्वर के मुख्य निज नाम ओ3म् के भावपूर्ण उच्चारण के साथ संगोष्ठी का विधिवत् उदुधाटन हुआ)। पूज्य स्वामी जी ने अपने स्नेहपूर्ण उद्बोधन में सभी सदस्यों से आर्ष वैदिक योग का प्रचार-प्रसार करने का आह्नान किया। न्यास के उद्देश्यों को स्मरण कराते हुये स्वामी जी ने उपस्थित सदस्यों से कहा कि आप स्वयं निरन्तर योगाभ्यास करते हुए अन्यों को भी प्रशिक्षिण देने का प्रयत्न करते रहें। आप सब में सदा उत्साह बना रहे और यथायोय इस कार्य में सहयोग करते रहें और अन्यों से भी कराते रहें।

इसके पश्चात् उपसचिव आचार्य आशीष जी ने 23-24 फरवरी 2013 को ऋषि उद्यान अजमेर में सम्पन्न हुये गत स्नेह-सम्मेलन का सार संक्षेप प्रस्तुत किया। आचार्य जी ने सूचित किया कि गत सम्मेलन के समय न्यास के सदस्यों की संख्या एक सौ थी, जिसमें से 75 व्यक्ति उपस्थित थे। पुनः आचार्य जी ने गत सम्मेलन में चर्चित विविध विषयों को सार-संक्षेप प्रस्तुत किया। इसके उपरान्त कोषाध्यक्ष आचार्य सत्येन्द्र जी ने न्यास का निम्नलिखित आर्थिक-विवरण, प्रस्तुत किया-
कुल दी गई छात्रवृत्तियाँ-1,45,000 रु. वैदिक विद्वानों को सहयोग 3600 रु., ब्र. अरुण जी को चिकित्सा सहायतार्थ 24000 रु., योग 2,05000 रु., संरक्षित राशि 16,00,000 लाख (एफ.डी.)। आपने सूचित किया कि इन्दौर के उद्योगपति श्री शिवकुमार जी न्यास को 5 लाख रुपए का सात्त्विक दान प्रदान कर न्यास के संरक्षक सदस्य बने हैं। तदुपरान्त अत्यन्न स्नेह एवं सौहार्द के वातावरण में नूतन सदस्यों का परिचय-कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।

उद्घाटन-सत्र का समापन करते हुए न्यास के अध्यक्ष आचार्य ज्ञानेश्वर जी ने अपने सारगर्भित अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि संगठन निर्माण एक मुश्किल (कठिन) काम है। संगठन के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुये आपने कहा कि जैसा संगठन आर्येतर मतों-ईसाइयों और मुस्लिमों में है, वैसा आर्यों में भी होना चाहिये। आपने कहा कि किसी भी संगठन को पहले अच्छी तरह से परख लें, तत्पश्चात् शामिल होने योग्य समझकर ही उसमें शामिल हों। परन्तु संगठन में आने के बाद अनुशासित रहें। त्याग, अनुशासन और सहयोग से ही संगठन सशक्त होता है। संगठन की सार्थकता यदि नहीं समझ में आये तो प्रेमपूर्वक उससे अलग हो जाना चाहिये जो स्वयं न तो कार्य करते हैं और न ही किसी को कार्य करने देते हैं - ऐसे लोग संगठन के लिये हानिकारक होते हैं। न्यास की सार्थकता को रेखंाकित करते हुये आपने कहा कि आर्य समाज के इतिहास में प्रथम बार एक सौ से ज्यादा दर्शनों के विद्वान् एक सगठन-सूत्र में बधें हैं। आचार्य सोमदेव जी ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक इस पूरे सत्र का संचालन किया।

दूसरा सत्र 2 से 4 बजे तक चला, जिसका संचालन आचार्य संदीप जी ने किया तथा अध्यक्षता स्वामी ऋतस्यति जी ने की। सत्र का विषय सृष्टि -संवत् था। विचारणीय बिन्दु (प्रश्न) था कि सृष्टि-संवत् 1 अरब 97 करोड़ वर्ष मानना उचित है या 1 अरब 96 करोड़ वर्ष।

सर्वप्रथम 1 अरब 97 करोड़ वर्ष के पक्ष में बोलते हुये ब्र. अरुण कुमार जी ने कहा कि मनुस्मृति एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की मान्यतानुसार सृष्टि व प्रलयकाल की गणना दो तरह से की गई है- प्रथम गणना के अनुसार 43,20,000 वर्षों की एक चतुर्युगी और एक हजार चतुर्युगियों की एक सृष्टि। अर्थात् चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष की एक सृष्टि और इतने ही काल की एक प्रलय। केवल इसी गणना के अनुसार सृष्टि और प्रलय को ब्रह्मा के एक दिन और एक रात की संज्ञा दी गई है। द्वितीय गणाना- इसके अन्तर्गत 43,20,000 वर्षों की एक चतुर्युगी 71 चतुर्युगियों का एक मन्वन्तर और 14 मन्वन्तरों की एक सृष्टि। अर्थात् चार अरब उन्तीस करोड़ चालीस लाख अस्सी हजार वर्षों की एक सृष्टि। किन्तु इस गणना के साथ ब्रह्म के दिन रात का उल्लेख नहीं है, यह केवल वेदोत्पत्ति के लिये है।

उपर्युक्त दोनों गणनाओं में दो करोड़ उनसठ लाख बीस हजार वर्षों का अंतर है। आपने कहा कि यह अन्तर क्यों है? इसका क्या रहस्य है? कुछ बिद्वान् इस अन्तर को 14 मन्वन्तरों के मध्य सन्धियों में विभाजित करते हैं, किन्तु अरुण जी की मान्यतानुसार मन्वन्तरों के मध्य सन्धिकाल तो है पर ये सन्धिकाल अलग नहीं है, अपितु मन्वन्तरों की समयावधि के अन्तर्गत ही समायोजित है जैसे दिन और रात के 12-12 धण्टे के दो सन्धिकाल माने जाते हैं। किन्तु सन्धिकाल के ये दो धण्टे चैबीस धण्टों से अलग नहीं है, अपितु उन्हीं में समायोजित हैं। इसी प्रकार मन्वन्तरों के सन्धिकाल के बारे में भी समझना चाहिये। काल गणना की दोनों विधाओं के अन्तर को वास्तव में दो भागों में बांटना उचित है। प्रथम 1,29,60,000 वर्षों का समय सृष्टि के प्रारम्भ में जड़-चेतनादि की उत्पत्ति के लिये और इतने ही वर्षों का समय सृष्टि के अन्त में विनाश के लिये है। तदुपरांत आचार्य सनत्कुमार जी एवं आचार्य आन्नद प्रकाश जी ने बारी-बारी से 1 अरब 97 करोड़ वर्ष के पक्ष में अपने विचार रखे। आचार्य रवीन्द्र जी ने 1 अरब 96 करोड़ वर्ष के पक्ष में अपना विचार प्रस्तुत करते हुये कहा कि ऋषि दयानन्द की मान्यता भी यही है, जो उचित है। आपने ज्योतिष विज्ञान की पुस्तक ‘सूर्य सिद्धान्त‘ में स्थापित 1 अरब 97 करोड़ वर्ष के पक्ष को ‘सूर्य सिद्धान्त‘ की प्रमाणिकता को नकारते हुये खण्डित किया। आपने बताया कि है ‘सूर्य सिद्धान्त‘ की ज्योतिष- गणनायें आधुनिक विज्ञान की तत्तत् गणनाओं से साम्य नहीं रखती हैं। आपने ‘सूर्य सिद्धान्त‘ और ‘शतपथ ब्राह्मण‘ की गणनाओं में भी मतभेद दिखाया। आपने कहा कि आचार्य बाराहमिहिर लिखित ‘पञचसिद्धान्तिका‘ में भी एक ‘सूर्य सिद्धान्त‘ है, जिसकी गणनायें और वर्तमान में मान्य सूर्य सिद्धान्त की गणनाओं में अनेक भेद है।

आचार्य आन्नद प्रकाश जी ने कहा कि 1 अरब 96 करोड वर्ष पक्ष में 6 चतुर्युगियों को नहीं जोड़ा गया है। इन्हें या तो मन्वन्तरों का सन्धिकाल मानना होगा या 3 चतुर्युगी सृष्टि निर्माण में और 3 चतुर्युगी नष्ट होने में लगा मानने से 1 अरब 97 करोड़ वर्ष प्रात हो जाता है। आपने बताया कि यथार्थतः 500 चतुर्युगियों तक सृष्टि निर्माता का कार्य चलता है और 500 चतुर्युगियों प्रलय का कार्य चलता है। आपने बताया कि वशिष्ठ ऋषि लिखित ‘सूर्य सिद्धान्त‘ जिसका अन्य शास्त्रों में वर्णन मिलता है, वर्तमान में अनुपलब्धा है। आचार्य ज्ञानेश्वर जी के अनुसार दोनों ही सृष्टि संवत् अपनी- अपनी जगह पर ठीक हैं, उसमें केवल दृष्टि-भेद का अन्तर है। वाद अनिर्णीत रहा। अगली संगोष्ठी में भी इस विषय पर पुनः चर्चा होगी।

तीसरा सत्र रात्रि 8.00 से 9.30 बजे तक चला, जिसका संचालन आचार्या सुखदा जी ने किया एवं अध्यक्षता आचार्य सत्यप्रकाश जी ने की। सत्र का विषय-जिज्ञासा समाधान था। सर्वप्रथम ब्रह्मचारी उत्तम जी ने ईश-भक्ति के एक भजन की सरस प्रस्तुति कर सबको ईश्वर भक्ति-रस में निमग्न कर दिया। इसके पश्चात जिज्ञासा समाधान का क्रम आया। आचार्या शीतल जी की जिज्ञासा थी कि कारण शरीर का स्वरूप क्या है और जीवात्मा के लिये यह कैसे उपयोगी है? जिज्ञासा का समाधान देते हुये आचार्य रामचन्द्र जी ने सत्व, रज, तम-मूल प्रकृति को ही कारण शरीर बताया।

लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान् आचार्य सत्यजित् जी ने वेदान्त दर्शन और सांख्य दर्शन के प्रमाण प्रस्तुत कर ईश्वर को ही सभी जीवों का कारण शरीर बताया।

स्वामी वेदपत्ति जी की जिज्ञासा थी कि यह कैसे ज्ञात हो कि हमें सुविधा, फल या सहायता के रूप में जो लाभ होता है, वह हमारे इस जन्म के कर्मों के कारण है अथवा अभी सीधे ईश्वर की कृपा हुई है?

आचार्य सत्येन्द्र जी की जिज्ञासा थी कि मिथ्या ज्ञान कहाँ रहता है, ईश्वर में या जीव में या प्रकृति में? यह उसका स्वाभाविक गुण है या नैमित्तिक है? जिज्ञासा का समाधान करते हुये आचार्य आनन्द प्रकाश जी ने बताया कि मिथ्या ज्ञान कहीं नहीं रहता, अपितु जीव के अल्पज्ञ होने के कारण प्रकृति के सम्पर्क में जीव के आने पर जीव में उत्पन्न होता है। यह जीव का नैमित्तिक गुण है, जो विवेक होने पर नष्ट हो जाता है।

श्री राजेश भागवत जी की जिज्ञासा थी कि मुझे ध्यान (उपासना) की विधि में शंका है। संध्या कैसे करनी चाहिय? ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना आदि शाब्दिक रूप में करने से अन्तः प्रवेश शीध्र होगा या प्रकृति विषयक अनुभूत दुःखरूप स्मृतियों को ध्यानकाल में उठाने से समाधि शीध्र लगेगी?

दिनांक 8 फरवरी को प्रातः 05.30 से 06.30 बजे तक सामूहिक उपासना, मौन के पश्चात् 7 से 8.35 बजे तक यज्ञ, भजन, प्रवचन का क्रार्यक्रम था। यज्ञ के पश्चात ब्र. उत्तम जी ने अपने सुमधुर कण्ठ से ईश्वर भक्ति का भजन प्रस्तुत कर सबको भाव-विभोर कर दिया। तदुपरान्त पूज्य स्वामी सत्यपति जी का आध्यात्मिक उपदेश हुआ। पूज्य स्वामी जी ने कहा कि मनुष्य जीवन सफल तभी होता है, जब वह इस जीवन के रहते-रहते ईश्वर की प्राति कर लेता है। मनुष्य की सफलता के लिये ईश्वर ने जो विद्या बनाई है, वह वेद की विद्या है। जैसा हम अपना कल्याण चाहते हैं, वैसे ही दूसरों का भी कल्याण चाहें। ईश्वर की प्राप्ति के लिये ईश्वर-प्राप्ति के उपाय और साधन जानना जरूरी है। ईश्वर प्रणिधान साधक को विशेष सहायता करता है।

प्रातः कालीन चौथा सत्र 9.30 से 11.30 बजे तक चला, जिसका संचालन आचार्य सनत्कुमार जी ने किया तथा अध्यक्षता आचार्य आनन्द प्रकाश जी ने की। सत्र का विषय था- आत्मा साकार है या निराकार? आचार्य सन्दीप जी, आचार्य आशीष जी, आचार्य सत्यजित् जी और स्वामी ऋतस्पति जी, इन सभी वक्ताओं ने आर्ष ग्रंथों के प्रमाणों सहित आत्मा के निराकार पक्ष में अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये। अतः सर्वसम्मति से आत्मा को निराकार स्वीवार किया गया।

पाँचवां सत्र अपराह्न 2 से 4 बजे तक चला, जिसका संचालन आचार्या शीतल जी ने किया तथा अध्यक्षता स्वामी ऋतस्पति जी ने की। सत्र का विषय था- मोक्ष में जाने के पूर्व कमशिय की समाप्ति हो जाती है या नहीं? इस विषय पर अपना विचार प्रस्तुत करते हुये आचार्य सत्येन्द्र जी ने कहा कि सृष्टि और जीवों के कर्म प्रवाह से अनादि होते हैं। अतः मोक्ष में जाने के पूर्व कमाशय का सर्वथा नाश नहीं होता। मोक्ष के पश्चात् आत्मा अपने पूर्व कर्मों के आधार पर नया शरीर को प्राप्त करता है। तदुपरांत आचार्य सत्यजित् जी ने कर्माशय की पूण समाप्ति के पक्ष में तर्क-प्रमाणों से युक्त अपने विचार प्रस्तुत किय। योगदर्शन के सूत्र-ततः क्लेलर्मनिवृत्तिः और अन्य सूत्र तथा उनके व्यास-भाष्य को उद्धृत कर आपने अपने पक्ष की पुष्टि की। अपने पक्ष की पुष्टि में आपने ‘चरक संहिता‘ और सांख्य दर्शन से भी प्रमाण प्रस्तुत किये।

इसके अनन्तर आचार्य आनन्द प्रकाश जी ने मोक्ष में जाने के पूर्व कर्माशय की पूर्णतः समाप्ति न होने के पक्ष में अपने विचार प्रस्तुत किये। अपने पक्ष में सांख्यदर्शन से प्रमाणों को उद्धृत करते हुये उन्होंने कहा कि बन्धन का निश्चित कारण अविवेक को यदि हटा दिया जाय तो मोक्ष हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति में विवेक का कोई समुच्चय-विकल्प नहीं है। जब तक अविद्या है, तब तक क्लेशमूल कर्माशय से नये जन्म होंगे। अविद्या के नष्ट होने के समय सारा कर्माशय नष्ट नहीं हो पाता है। मोक्ष के बाद उसी शेष बचे कर्माशय के आधार पर नया जन्म मिलता है। उन्होंने कहा कि यदि मोक्ष से पूर्व सम्पूर्ण कर्माशय की समाप्ति मानेंगे तो नया जन्म मिलने पर कृतहानि और अकृताभ्यागम का दोष आयेगा (या उपस्थित होगा।)

इसके अनन्तर आचार्या शीतल जी ने कर्माशय की पूर्ण समाप्ति हो जाने के पक्ष में तर्क-प्रमाणों से युक्त अपना विचार प्रस्तुत किया। अपने पक्ष की पुष्टि में उन्होंने गीता के श्लोक- ‘ज्ञानाग्नि भस्मसात् कर्माणाम्‘ (4/37 ) तथा ‘ज्ञानाग्नि दग्ध कर्माणाम्‘ ( 4/19 ) को उद्धृत किया। साथ ही आपने मुण्डकोपनिषद् से भी निम्न प्रमाण प्रस्तुत किये। भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे। (2.1.18)
वाद अनिर्णीत रहा।

छठा रात्रिकालीन सत्र 8 से 9.30 बजे तक चला, जिसका संचालन आचार्य हरीश जी ने किया तथा अध्यक्षता स्वामी अमृतानन्द जी ने की। सत्र का विषय था-कोई नया कार्य, विचारादि। इस सत्र में सुदूर दक्षिण केरल से पधारे युवा विद्वान् आचार्य आनद जी ने स्वकृत दशाधिक मुख्य आर्ष ग्रन्थों के मलयालम अनुवाद की आकर्षक पुस्तकों को मंच पर उपस्थित कर सबको आनन्द विभोर कर दिया। आपने ईसाई और इस्लाम मत का तर्क-विज्ञानपूर्ण खण्डन करने वाली मलयालम पुस्तकों को भी सबको दर्शाया। उपस्थित विद्वानों ने करतल-ध्वनि कर आपका साधुवाद किया। अपनी समस्याओं की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करते हुये उन्होंने कहा कि आर्ष परम्परा के लेखकों की सभी पुस्तकों की सूचियां अब तक अनुपलब्ध है। रामायण और महाभारत का शुद्ध भाग भी अनुपलब्ध हैं। आर्यों के इतिहास को सिद्ध करने का काम भी अभी तक पूर्ण नहीं हुआ है। लाहौर में आर्ष-ग्रन्थों के विशाल संग्रह का क्या-हुआ इसका भी पता किया जाना चाहिये।

तदुपरान्त आचार्य सन्दीप जी ने हरियाणा प्रान्त के विद्यालयों में आपने द्वारा किये जा रहे वेद प्रचार से सबको अवगत कराया। आपने बताया कि ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ पर आधारित वैदिक सिद्धान्तावली की परीक्षा प्रतिवर्ष कई विद्यालयों में संचालित की जा रही है। इसमें उत्तीर्ण श्रेष्ठ छात्रों को पुरस्कृत भी किया जाता है।

इसके अनन्तर आचार्य सनत्कुमार जी ने शब्दार्थ-सम्बन्ध से तत्त्वज्ञान विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि हम शब्दार्थ-सम्बन्ध के माध्यम से सभी सत्य-विद्याओं को वेद से प्राप्त कर सकते हैं। तदुपरांत नैष्ठिक योगेन्द्र जी ने आहार शुद्धि की ओर सबका ध्यान आकृष्ट कराया ।

इसके अनन्तर लब्धप्रतिष्ठ कम्प्यूटर वैज्ञानिक प्रो. शत्रुञजय जी रावत ने हैदराबाद स्थित ट्रिपल आई.टी. संस्था में स्व-प्र्रयास से वैदिक दर्शनों की कक्षा प्र्रारम्भ कराने तथा वहाँ के अधिकारियों, छात्रों के बीच किये जा रहे वैदिक जीवन दर्शन के प्रचार- प्रसार से सबको अवगत कराया। आप उक्त संस्था में प्राध्यापक हैं।

तदुपरान्त आचार्या सुखदा जी ने कम्प्यूटर इंटरनेट पर स्व-आविष्कृत ‘सन्धि-सप्लीटर’ और ‘समाज एनालाइजर‘ की व्याख्या सहित जानकारी दी। उन्होंने अपने द्वारा किये जा रहे हैदराबाद विश्व विद्यालय में वेद और संस्कृत प्रचार से भी सबको अवगत कराया।

तदुपरांत आचार्य आनन्द प्रकाश जी ने प्रकाशित होने वाली अपनी आगामी पुस्तकों- वैशेषिक दर्शन (प्रस्तपाद भाष्य सहित), सांख्य दर्शन ‘आर्ष-निर्वचन कोष‘ आदि का परिचय दिया।

वक्ताओं के वक्तव्य पर अपनी सम्मति व्यक्त करते हुये प्रख्यात युवा विद्वान् आचार्य आनन्द पुरुषार्थी ने ‘प्रचार-रथ‘ वाहन द्वारा ग्रामीण अंचलों में वेद-प्रचार की चर्चा की। आपने रेलवे-स्टेशनों पर विक्रय हेतु सत्यार्थ प्रकाश की व्यवस्था कराये जाने के अपने प्रयास से भी सबको अवगत कराया।

अरुण जी आर्यवीर ने स्व-रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश-कवितामृत‘ प्रकाशित कराने की सूचना दी। आपने बताया कि साधकों के लिये ऋषि-प्रदर्शित ध्यान योग का पाठ्यक्रम भी विकसित किया गया है।

तदुपरान्त पूज्य स्वामी अमृतानन्द जी ने योग्य शिक्षकों द्वारा अपने-अपने क्षेत्रों में योग शिविरों के आयोजन द्वारा वैदिक योग प्रचार की आवश्यकता बताई।

दिनांक 9 फरवरी को सामूहिक उपासना- मौन के पश्चात् 7.00 से 8.15 बजे तक यज्ञ, भजन, प्रवचन का कार्यक्रम था। यज्ञोपरान्त पूज्य स्वामी सत्यपति जी ने अपने आध्यात्मिक उपदेश में कहा कि यदि फल प्राप्ति की इच्छा बनी रही तो ईश्वर प्राणिधान में दोष आयेगा। अतः अपनी सभी क्रियाओं को परम गुरु ईश्वर को अर्पित कर देना चाहिये। आपने कहा कि जीवन में सफल होने के लिये छोड़ने योग्य क्या है और उसका उत्पादक कारण क्या है? इन दोनों को ठीक से जानना जरूरी है, इसके साथ ही प्राप्त करने योग्य क्या है और उसे प्राप्त करने के उपाय क्या हैं? इन सबको जानकर उन्हें क्रिया रूप् आचरण, में लाने से ही जीवन में सफलता मिलती है। उन्होंने कहा कि दुखः, बाधा या पीड़ा ही छोड़ने याग्य है और इसका कारण अविद्या है। प्राप्त करने योग्य-ईश्वर और मोक्ष है। शुभ-निष्काम कर्म ईश्वर-प्राप्ति के लिये अवश्य करना चाहिये।

अगला सातवां सत्र 9.30 से 11.30 बजे तक चला, जिसका संचालन आचार्य आशीष जी ने किया तथा अध्यक्षता आचार्य आनन्द प्रकाश जी ने की। सत्र का विषय था-बैक्टीरिया (जीवाणु) तथा वायरस (विषाणु) आदि सजीव है या निर्जीव?

विषय पर अपना विचार प्रस्तुत करती हुई आचार्या सुखदा जी ने कहा कि जीवाणु और विषाणु सजीव हैं। अपने पक्ष की पुष्टि में हेतु देते हुये उन्होंने कहा कि वे आपस में संकेतों द्वारा बातचीत करते हैं, सदा समूह में रहते हैं, अपने जैसी संतान पैदा करते हैं, तथा अपने से भिन्न अपने विरोधियों पर आक्रमण करते हैं। अर्थात् उन्हें अपने-पराये का ज्ञान होता है। हम मनुष्यों को भी उनसे संगठन में रहने की सीख लेनी चाहिये। आपने बताया कि वायरस ज्वालामुखियों की धधकती आग में, पृथ्वी की गहराइयों में तथा बर्फ की चट्टानों में भी पाये जाते हैं, वहाँ ये कोमा में रहते हैं।

इसके अनन्तर आचार्य सनत्कुमार जी ने कहा कि वेदों में मानव-जीवन को कष्टप्रद बनाने वाले इन सभी जीवाणुुओं-विषाणुओं आदि का वर्णन आया है और इन्हें नष्ट कर देने की वेदाज्ञा भी है। वेद में वायरस को ‘यातुधन’ कहा गया है, जो शरीर को प्राप्त करके मारता है। अथर्ववेद में कहा गया है कि यज्ञ-अनिहोत्र धुम्र से ये नष्ट होते हैं। वेदों में इन्हें भूत, पिशाच, पिशितम् राक्षस, असुर आदि नामों से सम्बोधित किया है। आपने दुःख देने वाले ‘अज्ञान’ वायरस की भी चर्चा की। आपका पक्ष भी इन्हें सजीव मानने का था।

इसके अनन्तर आचार्या शीतल ने भी इन्हें सजीव साबित करते हुये कहा कि आधुनिक विज्ञान के अनुसार इनमें सजीव के लक्षण पाये जाते हैं। ये जैविक ऊर्जा का उत्पादन करते हैं। इनमें इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुखःदुख, ज्ञानादि-आत्मा के लक्षण, पाये जाते हैं। ये सजातीय उत्पन्न करते हैं। ये बाहृा. वातावण को समझकर प्रतिक्रिया करते हैं।डी.एन.ए. और आर.एन.ए. रहता है बाइरस सजीव कोशिका पर आक्रमण कर उसमें विषमता उत्पन्न करता हैंए उसके डी.एन.ए. और आर.एन.ए. को नष्ट करता है तथा उनसे जैविक ऊर्जा ग्रहण करता है। उन्होंने कहा कि वायरस को पूर्णतः नष्ट करने की कोई औषधि नहीं होती है।

तदुपरान्त आचार्य सत्यजित् जी ने भी इनके सजीव होने के पक्ष में अपने विचार प्रस्तुत किये। उन्होंने विषय-वर्णित ‘जीवाणु, विषाण आदि’ में ष्आदिष् शब्द से कवक, प्रोटोजोवा, शैवाल-अल्गी, इन्सेक्ट, पेस्ट को भी ग्रहणए करने को बात कही। उन्होंने कहा कि ये सजीव होते हैं क्योंकि ये आहार ग्रहण करते हैं और उसे स्व-शरीर के अनुकूल बनाते हैं।

आठवां समापन.सत्र 2.00 से 4.00 बजे तक चला, जिसका संचालन आचार्य सत्यजित् जी ने किया तथा अध्यक्षता आचार्य ज्ञानेश्वर जी ने की। इस सत्र में सर्वप्रथम उपसचिव आचार्य आशीष जी ने न्यास की आगामी योजनाओं की जानकारी दी। इसके उपरान्त शिविर के अन्तर्गत सदस्यों को हुये अनुभवों तथा संगठन को अर्थवता प्रदान करने वाले सुझावों का कार्यक्रम चला। स्वेच्छा से अपने अनुभव सुनाने आये सदस्यों ने शिविर में हुये अपने सुखद एवं ज्ञानवर्द्धक स्मरणीय अनुभवों को प्रस्तुत किया तथा अपने तर्कसंगत सुझावों से भी सबको अवगत कराये।

इसके अनन्तर पूज्य स्वामी सत्यजित् जी ने अपने प्रेरणादायक आशीर्वचन देते हुये कहा कि संगठित रहकर जितना आप अपना और संसार का उपकार कर सकते हैं, उतना अकेले नहीं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी विशेषतायें होती है। साथ मिल-बैठक कर एक दूसरे की सहायता करने से सभी लाभान्वित होते हैं। एक-दूसरे से सीखते हुये अपना जीवन सफल बनायें तथा दूसरों के जीवन सफल बनाने का भी प्रयत्न करते रहें।

तदुपरान्त अपने सारगर्भित अध्यक्षीय उद्बोधन में आचार्य ज्ञानेश्वर जी ने न्यायदर्शन के सूत्र ‘न कर्मकतृसाधनवैगुण्यात्’ को उद्धृत करते हुये कहा कि जब कर्म, कर्त्ता और साधन अपने गुणों से युक्त रहते हैं अर्थात् इनमें कहीं किसी तरह की न्यूनता नहीं रहती, तब अवश्य ही सफलता मिलती है। उन्होंने कहा कि हम न्यास के उद्देश्यों को सदा स्मरण रखते हुए ऐसा पुरुषार्थ करें कि कभी असफल न हों। इसके पश्चात आचार्य आशीष जी ने स्नेहपूर्वक सबको धन्यवाद ज्ञापित किया। अन्त में संगठन सूक्त एवं शान्तिगीत-शान्तिपाठ के सुमधुर सस्वर गायन एवं हर्षोल्लास के साथ संगोष्ठी का समापन हुआ।


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