Adhyatmik Chintan Blog

लेखक - आचार्य सत्यजित आर्य जी

 

प्रभुकृपा से यह संसार गतिशील है। सब प्राणी गतिशील हैं, उनके लिये कर्म करते रहना आवश्यक है। कर्म से ही यह संसार-जीवन चल पाता है। कर्म से जीवन में सुख व सुख-साधनों की प्राप्ति होती है, दुःख व दुःख को कारणों का हटाया जाता है। सुख-शांति से जीने के लिये शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार के कर्म आवश्यक हैं। यदि कोई प्राणी कर्म न करना चाहे तो भी बिना कर्म के रह नहीं सकता। भूख-प्यास आदि दुःख व सुुःख का आवेग इतना कष्टदायक होता है कि व्यक्ति को कर्म करने ही होते हैं। कर्म करने में चूंकि कष्ट होता है, अतः हम कर्म से बचते हुए दुःख की निवृत्ति व सुख की प्राप्ति चााहने लगते हैं। तब हम अल्प श्रम वाले अधर्म का मार्ग पकड़ लेते हैं। इस से हम अधिक दुुुःखी हो जाते हैं, अस्वस्थ हो जाते हें।

प्रभु-कृपा से हममें से जो धर्म के मार्ग में आस्था-रुचि रखते हैं वे कर्म के कष्ट से बचना नहीं चाहते। उन्हें कर्म के कष्ट से बड़ा कष्ट कर्म के न करने में दिखता है। कर्म से ही दुःख की निवृत्ति ब सुख की प्राप्ति होती है, इस स्वयं के व अन्यों के अनुभव को देखकर हम शारीरिक व मानसिक कर्म करते हैं, हम अधिकाधिक शारीरिक-मानसिक कर्म करने की और बढ़ जाते हैं। प्रत्यक्ष दुःख की निवृत्ति व प्रत्यक्ष सुख की प्राप्ति आकर्षण बहुत बड़ा है, हमारी दृष्टि इसी पर टिकी रहती है, उससे हट कर देख पाना, दूर की सोच पाना प्राय नहीं हो पाता है।

प्रभु-कृपा से निद्रा का वरदान हमें मिलता है। कर्म करना आवश्यक है, पर उचित मात्रा में। कर्म करना आवश्यक है तो कर्म से विराम भी आवश्यक है। प्रभु के वरदान निद्रा का उचित उपयोग करते रहें तो हम पर्याप्त कर्म भी कर पाते हैं। यदि कर्म के आवेग में निद्रा का सेवन (कर्म विराम) न करें या कम करें तो प्रभु बलात् निद्रा दिला देते हैं। फिर भी हम उसका विरोध को, तो रोग के कारण विराम लेना ही पड़ता है। प्रश्न उठता है कि दुःख की निवृति व सुख की प्राप्ति की आशा से किये गये कर्म की परिणति दुःख की प्राप्ति व सुख की निवृति में कैसे हो गई ? कर्म से विराम न लेने के कारण।

प्रभु-कृपा से इस शारीरिक व कुछ मानसिक कर्म-विराम की प्राप्ति निद्रा से होने को हम स्वीकारते हैं व प्रायः पालते भी हैं या कहें यह स्वभावतः होता भी रहता है। किन्तु ऐसा जानते-मानते हुए भी हम जागते समय मन को विराम देने की कला न जानने से मानसिक रूप से अत्यधिक कर्म करते चले जाते हैं, विचारों के अनियंत्रित प्रवाह में बहत जाते हैं। जिस प्रकार थका शरीर अपना संतुलन व कर्यक्षमता खोता जाता हैै, उसी प्रकार विचारों के प्रवाह से थका मन भी अपना संतुलन व कार्यक्षमता खोता जाता है। परिणाम यह होता है कि हम छोटे-छोटे कारणों से उदृवेलित-आवेशित-अनियंत्रित हो जाते है। इससे स्वयं भी दुःखी होते हैं व अन्यों को भी दुःखी करके अपने लिये पाप कमा कर भविष्य में अपने घोर दुःख पाने की व्यवस्था कर लेते हैं ।

मन के कर्म अर्थात् विचारों का करना जीवन के लिये आवश्यक है। यह दुःख की निवृति सुख की प्राप्ति के लिये आवश्यक है। विचारों का कर्म -विराम प्रभु-कृपा से निद्रा में हो भी जाता है, किन्तु जिस प्रकार अत्यधिक शारीरिक कर्म करने पर निद्रा पूरी थकान को हटा नहीं पाती है, उसी प्रकार अत्यधिक व अनियन्त्रित विचार से उत्पन्न् मानसिक थकान को निद्रा पूरी तरह हटा नहीं पाती है।

प्रभु-कृपा से इसके लिये उपाय हैं। योग के द्वारा चित्तवृत्तियों को रोक देना। योग-समाधि-ध्यान के द्वारा विचारों को नियंत्रित्त करना, हमारे सुन्दर-सुखी-शांत जीवन के लिये आवश्यक है। एक ओर जहां इससे निद्रा के समान विश्राम-बल मिलता है, वहीं दूसरी ओर मन के नियन्त्रित होने से विचारों पर नियन्त्रण बना रहता है, फलतः मानसिक थकान अधिक नहीं होती। मन उद्वेलित-आवेशित-अनियन्त्रित नहीं होता। यम-नियम के पालन से हमारा मन विचारों के अनियन्त्रित प्रवाह में फंसने से बचा रहता है।

शरीरिक-कर्मविराम के महत्त्व को हम प्रायः समझते हैं, उसे कर भी पाते हैं। प्रभुकृपा से मानसिक-कर्मविराम के लाभ को भी अघिकांश जागरूक व्यक्ति समझते हैं, किन्तु उसे प्रायः कर नहीं पाते हैं। विचार करते रहने में पडे़ रहकर हम अपने को बहुत दुःख देते रहते हैं। प्रभु-कृपा से हमारे में यह सामर्थ्य है कि हम वैचारिक कर्म-विराम का अभ्यास करते हुए अपने को इस दुःख से बचा सकते हैं, इच्छित सुख-शांति पा सकते हैं।

 

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